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निर्धनता अब तक बोल नहीं पाती थी,अब कुछ कहना चाहती है ।

  • Writer: शरद गोयल
    शरद गोयल
  • Aug 27, 2024
  • 6 min read

Updated: Sep 21, 2024


साधारणत: जब हम गरीबी की परिभाषा देते हैं, उसके केवल एक पक्ष अर्थात आर्थिक पक्ष तक ही सीमित रहते हैं । बहुत आसानी से बता देते हैं कि इतना कैलोरी भोजन ना मिले, इतनी आय ना हो और इतना व्यय ना हो तब वह व्यक्ति गरीब है । यहां एक गरीबी की रेखा हमारे सामने बन जाती है और उसके दो भाग होते हैं रेखा से ऊपर और रेखा से नीचे-बहुत अध्ययन हुए, शोध हुए और परिभाषाएं बदली परंतु आज तक ऐसी परिभाषा नहीं आई-जिसे प्रमाणिक माना जा सके और सभी विद्वान उसे स्वीकार करें । गरीबी कुछ लोगों के लिए वरदान भी सिद्ध हुई है । क्योंकि इसके माध्यम से लोग सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे हैं और शिक्षा शास्त्री विश्व के प्रतिष्ठित सम्मान नोबल पुरस्कार पाकर महिमा मंडित हुए हैं । पहले यह माना जाता था कि बेरोजगारी और गरीबी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । परंतु अब हो सकता है कि व्यक्ति बेरोजगार हो । परंतु नि:शुल्क भोजन उपहार के रूप में प्राप्त करके गरीबी रेखा के निर्धारित उपभोग मापदंड से अपना स्थान ऊपर प्राप्त कर लें और निर्धन कहलाने से बच जाए ।


निर्धनता बहुत आयामी होती है, इसमें केवल मूलभूत आवश्यकताओं की संतुष्टि से ही वंचित नहीं होना पड़ता । बल्कि उसे सामाजिक दृष्टि से उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है । ना कोई उसे बुलाता है और ना कोई उसके पास जाता है । उसे सामाजिक प्राणी की संज्ञा से दूर होना पड़ता है । उसे निर्धनता के कुचक इस प्रकार घेर लेते हैं कि वह इन कुचकों को तोड़ आगे नहीं बढ़ पाता । आत्म-मान, सम्मान, स्वाभिमान, पहचान, स्वीकार्यता, आदर-सत्कार, अभिव्यक्ति आदि सभी शब्दों को शब्दकोश तक ही सीमित रखना पड़ता है । यह व्यक्ति सब कुछ सहने के लिए ही जन्म लेता है । कुछ कह नहीं सकता, कुछ बोल नहीं सकता । ऐसे व्यक्ति की मन स्थिति कैसी होगी, क्या हम कल्पना कर सकते हैं । यह किसी भी सामाजिक बुराई से दूर रहे । परंतु शक की सुई सदैव यही अटक कर रुक जाती है । इसके पास सिद्ध करने का कोई साधन नहीं होता, अतः बिना किसी दोष के भी दंड सहना पड़ता है । अपराध मुक्त सिद्ध होने पर भी इससे कोई क्षमा-याचना करना अपना अपमान मानता है । जिस कार्य को पैतृक रूप से यह करता है, बस उसी में फंस जाता है । शिकवा वह करें, जिसे जागरूकता हो । निर्यात को स्वीकार करना उसकी विवशता होती है । अपवाद रूप से ऐसे लोग आते हैं जो इन कुचकों को तोड़कर आगे बढ़ते हैं । सब कुछ उपभोग किया हुआ, इस व्यक्ति को मिलता है । सब कुछ भगवान के अधीन और भाग्य में लिखा हुआ मानकर ही हंस लेता है । इसी कारण इसे अनिद्रा की बीमारी से कभी पीड़ित नहीं होना पड़ता । गरीबी मस्तिष्क के सभी द्वार बंद कर देती है । इसी कारण यह बहुत बड़ा अभिशाप है । विशाल नगरों में सड़क के दोनों ओर इनके आशियान हमने देखे तो हैं । इसी कारण गरीबी बहु आयामी है । गरीबी अभिशाप है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति सम्मान और सामाजिक सुरक्षा के साथ जीना चाहता है, अन्यथा आत्म गौरव खो जाता है ।


संयुक्त राष्ट्र संघ की एक आख्या के अनुसार भारत में 2005-2021 के बीच लगभग 41.5 करोड़ लोग बहुआयामी निर्धनता से ऊपर उठे हैं, परंतु आज भी जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग निर्धनता रेखा से ऊपर उठने के लिए प्रतीक्षा रत है, व्याकुल कहना उपयुक्त नहीं होगा । निर्धनता विवशता को जन्म देती है ।

 प्रसिद्ध अर्थशास्त्री देवाशीष बोस के अनुसार भारत में जिस प्रकार मुद्रा खर्च की जा रही है, उसका परिणाम यह हो रहा है कि उसका लाभ धनी वर्ग तक सीमित रहने के कारण समाज में विषमता की खाई बढ़ रही है । 2022-23 के वित्तीय वर्ष के अंतिम 3 मास की बिक्री की संरचना इस तथ्य की पुष्टि करती है । यह असंतुलन देश में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं समानांतर अर्थव्यवस्था की ओर इशारा भी करता है । मध्यवर्गीय लोगों की संख्या बढ़ रही है । कोविड-19 विश्वमारी के दौरान प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के अंतर्गत सरकार द्वारा 80 करोड़ लोगों को 5 किलोग्राम अतिरिक्त खाद्यान्न निशुल्क दिया गया । इस योजना  के अंतर्गत 1.22 करोड़ टन खाद्यान का वितरण किया गया । जिस पर लगभग 4 लाख करोड़ रुपए का व्यय सरकारी खजाने से किया गया । इस योजना के माध्यम से बहुत बड़े पैमाने पर व्याप्त आपदा को हल करने का प्रयास एक महत्वपूर्ण प्रयास सिद्ध हुआ ।

निर्धनता एक ऐसी समस्या है जिसकी परिभाषाएं और सूचकांक दिए गए परंतु ऐसी परिभाषा और सूचकांक नहीं आए । जिन्हें सर्वसम्मति से स्वीकार किया जा सके । यह अवधारणा जब वस्तुगत ना होकर, भावगत हो जाती है । तब हमारे सामने गांधी दर्शन की स्थिति सामने आती है- गांधी की वेशभूषा जो निर्धनता का सच्चा प्रतिनिधित्व करती है । वस्तुगत अर्थ में मूलभूत आवश्यकताओं की संतुष्टि जीवन के लिए आवश्यक है और हमारी कार्यकुशलता की सुरक्षा के लिए गुणात्मक जीवन जीने के लिए मूलभूत आवश्यकताओं की संतुष्टि आवश्यक है, इससे संतुष्ट आत्म स्वाभिमान जागने लगता है । यही तथ्य हमें मानव होने की अनुभूति प्रदान करता है ।


राष्ट्रीय लेखा समंकों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भोजन पर किया गया व्यय निजी अंतिम उपभोग व्यय का एक प्रमुख भाग है । 2019-20 और 2020-21 के बीच इसमें वास्तविक वृद्धि हुई है । 2011-12 में किए गए अखिल भारतीय उपभोग व्यय सर्वेक्षण के अनुसार आय के आधार पर ऊपर के 40% लोग खाद्यान्नों की दृष्टि गैर खाद्यान्नों का अधिक उपभोग करते थे और नीचे के 60% लोग का उपभोग व्यय इस दृष्टि से नगण्य था । परंतु यह विश्लेषण कोविड-19 के दौरान सत्य नहीं था । सरकार द्वारा सक्रिय हस्तक्षेप इस धारणा को बदलने में सहायक सिद्ध हुआ ।


निर्धनता के आकलन की दृष्टि से हाल में दो शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं और दोनों ही बहुत महत्वपूर्ण है । एक पत्र विश्व बैंक से संबंध अर्थशास्त्री रॉय तथा अन्य और दूसरा पत्र अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्यकारी निदेशक प्रोफ़ेसर सुरजीत भल्ला तथा उनके सहयोगियों के प्रयास और अध्ययन का फल है । 2011 वर्ष के उपरांत भारत में निर्धनता के अधिकृत आकलन से संबंधित समंक उपलब्ध नहीं है । दोनों ही शोध पत्रों में चरम निर्धनता का आकलन $1.90 क्रय शक्ति समता रेखा के प्रमाप के आधार को स्वीकार किया है । यह पाया गया है कि 2011-12 के उपरांत चरम निर्धनता का प्रतिशत गिर रहा है । प्रोफ़ेसर भल्ला और उनके साथियों द्वारा किए गए अध्ययन में यह पाया गया कि भारत में चरम निर्धनता लगभग समाप्त हो गई है । इसका आधार 2011-12 में किए गए अखिल भारतीय उपभोग व्यय सर्वेक्षण से संबंधित तथ्य थे । स्वाभाविक है कि ये तथ्य सकल घरेलू उत्पाद और उपभोक्ता कीमत सूचकों के अनुसार बदलते रहते हैं । दूसरा आकलन प्रोफेसर रॉय और उनके साथियों द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था प्रबोधन केंद्र (CMIE) द्वारा की गई सूचनाओं पर आधारित है । इसके अनुसार भारत में चरम निर्धनता के स्तर का अनुमान लगभग 10% लगाया गया है । इस आकलन में विविधता का पाया जाना स्वाभाविक है क्योंकि एक का आधार उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण और दूसरे शोध पत्र का आधार राष्ट्रीय लेखा समंक रहे हैं । विविधता तो शहरी और ग्रामीण क्षेत्र तथा अन्य मापदंडों के आधार पर पाई जाती है । इसी कारण प्रोफ़ेसर भल्ला और उनके साथियों ने चरम निर्धनता को समाप्त करने के लिए सरकार द्वारा अपनाए गए निर्धनता उन्मूलन उपायों को जारी रखने का सुझाव दिया है । यह भी सिफारिश की गई है कि निर्धनता प्रमाप को $1.90 क्रय शक्ति समता से बढ़ाकर 3.2 क्रय शक्ति समता कर दिया जाए । निर्धनता की स्थिति में अपना बहुत कुछ खो जाता है । ईश्वर कहीं निर्धनता के साथ बहुत अधिक जागरूकता दे दे तब बहुत कठिनाई उत्पन्न हो जाती है ।


2018-19 के बाद 2022-23 के वित्तीय वर्ष में शहरी बेरोजगारी की दर वर्ष के सभी चतुर्थांशों में कम रहीं है जबकि 2022-23 में श्रम शक्ति प्रतिभागिता दर 2018-19 के बाद सबसे अधिक थी अर्थात शहरी जनसंख्या का वह भाग जो रोजगार की तलाश में था वह सबसे अधिक 38.1 प्रतिशत था । बेरोजगारी दर प्रमुख से शिक्षित युवा जनशक्ति में पाई जाती है और इसका कम होना, यह अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा है । 2021-22 में भी बेरोजगारी की दर 2020-21 की अपेक्षा कम थी क्योंकि 2020-21 में विश्वमारी कोविड-19 का भयंकर प्रभाव था । बेरोजगारी दर का कम होना आर्थिक क्रियाओं की तीव्रता को दिखाता है । यह प्रवृत्ति सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि करेगी और वितरण में समावेशी दृष्टिकोण निर्धनता को कम करने में सहायक होगा । बेरोजगारी को दूर करने का अर्थ है कि हम निर्माण क्षेत्र और आधारभूत संरचना क्षेत्र को अधिक मजबूत कर रहे हैं ।

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष प्रोफेसर विवेक देवो रॉय का अनुमान सभी अर्थशास्त्री लगभग सही मान रहे हैं-उनके अनुसार भारत में लगभग 22 करोड अर्थात 18% जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है और विश्व भूखमरी सूचकांक के अनुसार भारत 121 देशों में 107 वें स्थान पर है । यह दोनों ही स्थितियां चिंता का विषय है ।


निष्कर्ष:- भारत विश्व की तीसरी आर्थिक शक्ति बनने की दिशा में हर संभव प्रयास कर रहा है । ऐसा ना हो कि एक  वर्ग (जिसका प्रतिशत बहुत कम होता है) वह विलासिता संबंधी वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग करें और दूसरी ओर समाज का एक वर्ग मूलभूत आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए भी तरसे । आवश्यक है कि अब निर्धनता की एक प्रमाणिक परिभाषा देकर उसका उन्मूलन करना चाहिए । भारत अमीर देश है तो इसके निवासी भी अमीर होने चाहिए तभी हमारा अमृत काल पर्व मनाना सार्थक सिद्ध होगा ।


एक दौलत खजानो का माली

एक का पेट रोटी से खाली,

एक मेहनत करे, फिर भी भूखा मरे,

एक गद्दी पर बैठा ही खा रहा है ।

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